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तेनालीराम की भटकती आत्मा

Tenaliram Aatma

तेनालीराम को मृत्युदंड दे दिया गया। यह समाचार आग की तरह शहर में फैल गया। कोई नहीं जानता था कि तेनालीराम जीवित है और अपने घर में छिपा हुआ है। लोगों में खुसुर-फुसुर होने लगी। छोटे से अपराध की इतनी बड़ी सजा?

अंधविश्वासियों ने यह प्रचार करना भी शुरू कर दिया कि ब्राह्मण की आत्मा भटकती रहती है। इस पाप का प्रायश्चित होना चाहिए। राजा की दोनों रानियों ने जब यह सुना तो वे भी डर गईं। उन्होंने राजा से कहा कि इस पाप से मुक्ति के लिए कुछ उपाय कीजिए। लाचार होकर राजा ने अपने राजगुरु और राज्य के चुने हुए एक सौ साठ ब्राह्मण को विशेष पूजा करने का आदेश दिया ताकि तेनालीराम की आत्मा को शांति मिले।

पूजा का कार्य नगर के बाहर बरगद के उस पेड़ के नीचे किया जाना था, जहाँ अपराधियों को मृत्युदंड दिया जाता था। यह खबर तेनालीराम तक पहुँच गई। रात होने से पहले ही वह उस बरगद के पेड़ पर जा बैठा। उसने सारा शरीर लाल मिट्टी से रंग लिया और चेहरे पर धुएँ की कालिख पोत ली।



आत्मा की शांति

इस तरह उसने भटकती आत्मा का रूप बना लिया। रात में ब्राह्मणों ने छोटी-छोटी लकड़ियों से आग जलाई। उसके सामने बैठकर न जाने वे कौन-कौन से मंत्र पढ़ने लगे। वे जल्दी से पूजा समाप्त करके घर जाकर अपने आरामदेह बिस्तरों पर सोना चाहते थे।

जल्दी-जल्दी मंत्र पढ़कर उन्होंने तेनालीराम की भटकती आत्मा को पुकारा, ‘तेनालीराम की भटकती आत्मा! ‘आहा!’ उन्हें उत्तर मिला। ब्राह्मणों की सिट्टी-पिट्टी गुम, उनके पाँव डर के मारे जैसे जमीन से ही चिपक गए थे। उनमें खुसर-फुसर होने लगी-‘भटकती आत्मा ने सचमुच उत्तर दिया है। हमें तो इस बात की आशा बिल्कुल नहीं थी।’

असल में तो वे लोग पूजा की खानापूरी करके राजा से कुछ रुपया ऐंठने के चक्कर में थे। उन्होंने सोचा भी न था कि तेनालीराम सचमुच भटकती आत्मा बन गया। एकाएक अजीब-सी गुर्राहट के साथ तेनालीराम पेड़ से कूदा। ब्राह्मणों ने उसकी भयानक सूरत देखी तो डर के मारे चीखते-चिल्लाते सिर पर पाँव रखकर भागे।

राजा ने उन सबसे जब यह कहानी सुनी तो बहुत हँसे-‘तुम लोग तो बड़ी-बड़ी बातें बनाना ही जानते हो। जिस भटकती आत्मा को शांत करने के लिए तुम्हें भेजा था, उसी से डरकर भाग आए?’ ब्राह्मण सिर झुकाए खड़े रहे। ‘विचित्र बात तो यह है कि इस भटकती आत्मा ने मुझे दर्शन नहीं दिए। तुम लोगों को ही दिखाई दिया।’

राजा ने कहा-‘जो हुआ सो हुआ। अब जो इस भटकती आत्मा से मुक्ति दिलवाएगा, उसे एक हजार स्वर्णमुद्राएँ दी जाएँगी।’ राजा की घोषणा के तीन दिन बाद एक बूढ़ा संन्यासी राजदरबार में उपस्थित हुआ। उसकी दाढ़ी बगुले के पंख की तरह सफेद थी।

उसने कहा, ‘महाराज, मैं इस भटकती आत्मा से आपको मुक्ति दिला सकता हूँ। शर्त यह है कि जब आपको संतोष हो जाए कि भटकती आत्मा नहीं रही, तो आपको मुझे मुँहमाँगी चीज देनी होगी।’ ‘ठीक है, इस भटकती आत्मा से तो मुक्ति दिलवाइए ही, साथ ही उस ब्राह्मण की हत्या के पाप से भी मुझे छुटकारा दिलाइए, जो बेचारा मेरे क्रोध के कारण मारा गया।’ राजा ने कहा।

‘आप चिंता न करें, मेरे उपाय के बाद आपको ऐसा लगेगा जैसे ब्राह्मण मरा ही नहीं।’ संन्यासी बोला। ‘क्या?’ राजा ने हैरान होकर पूछा, ‘क्या आप उस विदूषक को दोबारा जीवित कर सकते हैं?’ आप चाहें तो ऐसा कर सकता हूँ। संन्यासी ने उत्तर दिया।

‘ऐसा हो सके तो और क्या चाहिए। राजा ने कहा। राजगुरु पास ही बैठा था, बोला, ‘लेकिन महाराज, कभी मुर्दे भी जीवित हुए हैं? और फिर उस मसखरे को जीवित करने से लाभ ही क्या है? वह फिर अपनी शरारतों पर उतर आएगा और आपसे दोबारा मौत की सजा पाएगा।’

‘कुछ भी हो, हम यह चमत्कार अवश्य देखना चाहते हैं और फिर हमारे मन पर जो बोझ है, वह भी तो उतर जाएगा। संन्यासी जी, आप यह उपाय कब करना चाहेंगे?’ राजा ने कहा। ‘अभी और यहीं।’ संन्यासी ने उत्तर दिया।

‘लेकिन भटकती आत्मा यहाँ नहीं, बरगद के उस पेड़ के ऊपर है, महाराज, मुझे तो लगता है कि संन्यासी कोरी बातें ही करना जानता है, इसके बस का कुछ नहीं है।’ राजगुरु ने राजा से कहा। ‘राजगुरु जी, जो मैं कह रहा हूँ वह करके दिखा सकता हूँ। आप ही कहिए, यदि मैं उस ब्राह्मण को ही आपके सामने जीवित करके दिखा दूँ तो क्या भटकती आत्मा शेष रहेगी?’ संन्यासी बोला।

‘बिलकुल नहीं।’ राजगुरु ने उत्तर दिया। ‘तो फिर लीजिए, देखिए चमत्कार।’ संन्यासी ने अपने गेरुए वस्त्र और नकली दाढ़ी उतार दी। अपनी सदा की पोशाक में तेनालीराम राजा और राजगुरु के सामने खड़ा था। दोनों हैरान थे। उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

तेनालीराम ने तब राजा को पूरी कहानी सुनाई। उसने राजा को याद दिलाया, ‘आपने मुझे मुँहमाँगा इनाम देने का वायदा किया है। आप उन अंगरक्षकों को क्षमा कर दीजिए, जिन्हें आपने मुझे मारने के लिए भेजा था।’

राजा ने हँसते हुए कहा, ‘ठीक है, साथ ही तुम्हें एक हजार स्वर्णमुद्राओं की थैली भी भेंट की जाती है। और हाँ, वह जो दस स्वर्णमुद्राएँ तुम्हारी माँ और पत्नी को देने का मैंने आदेश दिया था, उसे वापस लेता हूँ, नहीं तो कोषाध्यक्ष मेरी नाक में दम कर देगा।’ यह कहकर राजा कृष्णदेव राय ने एक जोर का ठहाका लगाया।